कई लोग पूछते हैं की मैं मुसलमानों से इतनी नफरत क्यूँ करता हूँ? मैं खुल कर जवाब नहीं देता था। लोग आ कर मुझे समझते थे की ये हमारे देश के ही हैं, इनसे इतनी नफरत नहीं करनी चाहिए। हमे मिलजुल कर रहना चाहिए इत्यादि। वैसे मैंने उनको हमेसा एक जवाब दिया कि मुझे मुसलमानों से नफरत नहीं है बल्कि मुझे मुल्लों से नफरत है। मुसलमान वो होता है जो ईमान का पक्का होता है। और मुल्ला जो अपने बाप का भी नहीं होता है।
मेरे मुल्लों के प्रति नफरत की शुरुवात उन दिनों से हुई जब मैं कुछ समझने लायक हुआ। शुरू से मैं अपने दादा-दादी के काफी करीब रहा, उनका लाड़ला हूँ। लेकिन दादा जी अपने लाड़-प्यार मे भी थोड़े व्यावहारिक थे। उन्होने बताई इन मुल्लों कारस्तानी।
बात उन दिनों कि है जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। और मेरे दादा जी कि उम्र उस समय शायद 20+ थी। बँटवारे से पहले दादा जी कि बड़ी बहन कि शादी ढाका, बांग्लादेश मे उस समय के एक बड़े जमींदार से हुई थी। जिनका वहाँ अपना बिजनेस था एवं वो खुद स्वतन्त्रता सेनानी थे। अब बँटवारे के समय के समय सभी उनको भारत बुला रहे थे क्यूंकी बँटवारे से पहले ही मुल्ले खून-खराबे पर उतर आए थे। लेकिन दादा जी के बहनोई ने कहा कि ढाका उनकी कर्मस्थली ही नहीं वरन जन्मस्थाली भी है। अतः वो ढाका किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे और ना ही मुसलमान बनेंगे।
दादा जी के बहनोई के यहाँ कई मुल्ले कार्य करते थे और दादा जी के बहनोई के वजह से ही उन मुल्लों के घर का चूल्हा जलता था। जब मुल्लों के अत्याचार से वहाँ कि हिन्दू जनता इनको जवाब देने पर आई तब ये सभी भाग कर दादा जी के बहनोई कि कोठी मे पहुंचे। दादा जी के बहनोई का उस समय रसूख बहुत ही अच्छा था। अतः उनके मिन्नत करने पर उन मुल्लों को छोड़ हिंदुओं कि गुस्साये भीड़ ने बख्स दिया और वहाँ से चले गए। लेकिन मुल्ले मारे डर के वहीं रहे करीब 3-4 दिन तक। बुआ और उनकी देवरानियाँ सभी के लिए खाना बनाती थीं उन 4 दिनों मे। लेकिन जब हिन्दू वहाँ से पलायित हो गए और भारत आ गए तब मुल्लों कि भीड़ आगे बढ़नी चालू हुई और बचे हुए अल्प हिंदुओं को काटना चालू किया।
इसी क्रम मे जब उन्मादी मुल्लों कि भीड़ दादा जी के बहनोई के घर के सामने आई तो उनके लठैतों एवं हिन्दू कामगारों ने हवेली का गेट बंद कर दिया। तभी जो मुल्ले दादा जी के बहनोई के यहाँ शरण लिए हुए थे उन्होने हवेली का गेट खोल दिया और उन्मादी भीड़ हवेली के अंदर घुस आई। इतने मे दादा जी के बहनोई ने अपने एक विस्वसपात्र सेवक से कह घर कि औरतों को घर से बाहर सुरक्षित भेज दिया ताकि आबरू बची रहे। घर के अंदर दादा जी के बहनोई कि माँ और मर्द बचे रहे। घर के लोगों और अपने अन्नदाता मेरे दादा जी के बहनोई पर घातक प्रहार करने वाला और कोई नहीं बल्कि शरण लिया हुआ मुल्ला ही था। घर के सभी व्यक्तियों को काट डाला गया। घर को घर मे घायल पड़े लोगों के साथ आग के हवाले कर दिया गया। पूरे घर मे या परिवार मे कोई भी व्यक्ति जिंदा नहीं बचा था।
इसी बीच दादा जी जो उस समय कलकत्ता मे रहते थे अपनी बहन को लाने ढाका के लिए निकल चुके थे वो भी पैदल। दादा जी नालों एवं सभी कठिनाइयों को पार करते हुए ढाका पहुंचे। मुल्लों से बचा कर अपनी बहन को लाने के लिए दादा जी ने अपनी दाढ़ी मुल्लों के मानिंद रख ली थी।
इसी बीच ढाका मे दादा जी कि बहन ही किसी तरह जिंदा बच पाईं जो एक हिन्दू घर मे आश्रय लिए हुए थी अपने पति के इंतजार और बाकी उनकी देवरानियाँ सेवक के साथ निकल गईं लेकिन ना तो सेवक का कुछ पता चला और ना ही देवरानियों का। दादा जी कैसे भी ढूंढते हुए उस घर मे पहुंचे जो दादा जी के बहनोई के घर से करीब 1 किलोमीटर कि दूरी पर हिन्दू बाहुल इलाके मे था।
दादा जी वहाँ से अपनी बहन को लेकर भारत कि तरफ चल पड़े बिना अपनी बहन को उनके पति एवं सभी घरवालों कि मौत के बारे मे बताए हुए। रास्ते मे हिन्दू की भीड़ देखते ही मुल्ले हमला कर देते थे। लड़कियों एवं औरतों को उठा ले जाते थे एवं मर्दों को काट डालते थे। दादा जी एवं उनकी बहन नालों के अंदर, पुलों के नीचे या लाशों के बीच लेट कर किसी तरह बचते-बचाते कलकत्ता पहुंचे। वहाँ से दादा जी के दोस्त या सही मायनों मे बड़े भाई समान श्री विजय सिंह नाहर जी ने दोनों लोगों को हमारे गाँव भेजने कि व्यवस्था कि। दादा जी की बहन जीवन पर्यंत हमारे साथ ही हमारे गाँव पर रहीं।
दादा जी बताते हैं कि कपड़े पूरी तरह खून से सन गए थे। रात मे सोने पर आँख बंद नहीं होती थी एवं लाशों का मंजर आँखों के सामने नाचता था। कैसे वहशी मुल्ले लोगों को काट-काट कर फेंकते थे। बलात्कार करना एवं उसके घर सहित जला देना ये उन मुल्लों के लिए आम बात थी।
अब ऐसे मे आप बताएं क्या मेरी इन मुल्लों के प्रति नफरत गलत है। ये जो अपने बाप के नहीं होते हैं, ये जो अपने अन्नदाता के नहीं होते हैं....क्या कभी ये मुल्ले इस देश या हमारे-आपके होंगे।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक परिस्थिति से गुजरे हैं आप ,परन्तु वास्तविकता इससे भी भयानक थी
आज हम सभी महज उस भयावहता को सोच सकते हैं...यकीनन जिन्होने झेला है वही जानते हैं की भयावहता कितनी भयानक एवं दर्दनाक थी
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद मयंक सर.....और आपको भी स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें
ReplyDeletewe share this common legacy and the feeling towards muslims
ReplyDeletemost of us share this common legacy of partition and the feeling is same.......................very well written
ReplyDeleteधन्यवाद "रघु" भाई :)
Deleteइस भयानक परिस्थितियों से जो गुज़रा है वही जानते हैं इस उन्माद की कहानी ।
ReplyDeleteउन्माद ने ही आज देश को ऐसे दोराहे पर ला खड़ा किया है की किसी को अपना हाथ तक नहीं सूझ रहा है...अगर तभी रक्षार्थ कदम उठाए गए होते तो कल या आज ये दिन ना देखना पड़ता
Deleteजय माता जी, भाई विनीत आप १००% सही कह रहे है. मुझे भी बहुत नफरत है इनसे.
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