30 Nov 2012

Chitra Narayanan : Ambassador Swiss retired but keep refusing to handover charge to her Successor

चित्रा नारायणन : स्विस एम्बेसडर रिटायर्मेंट के बाद भी अपने बदले किसी और को पद पर ज्वाइन नहीं करने दे रहीं ! ! ! 


अब लो भाई उच्चस्थ पदों पर रहे महानुभाओं के बच्चे अभी भी खुद को उसी उच्चस्थ पद पर मान रहे हैं  तथा खुलेआम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की हक़ से बेईजत्ति करने में दिलोजान से लगे हुए हैं 

"के आर नारायणन" जो की कभी भारत के प्रथम व्यक्ति (राष्ट्रपति) रहे थे की सुपुत्री "चित्रा नारायणन" जो की एक "आईएफएस" ऑफिसर हैं और स्विट्ज़रलैंड में 2008 से ही भारतीय राजदूत के पद पर शुसोभित हैं। वैसे भारतीय राजदूत का कार्यकाल 3 वर्षों का होता है और ज्ञात रहे की माननीया चित्रा जी 2011 में ही रिटायर हो चुकी हैं। लेकिन पद पर मिले या कहें तो अभी भी मिल रहे लाभों के लोभ में अपने पद को छोड़ने को तैयार नहीं हैं तथा चित्रा जी को कार्यावकाशोपरांत पद भार ग्रहण करने पहुँचे ऑफिसर को पिछले 1 साल से अनवरत इंतजार में व्यतीत करना पड़ रहा है। इसके साथ-साथ हमारी मौजूदा सरकार इनको पद का एक्सटेंसन दिए जा रही है।

साथ ही ये भी ध्यान देने वाली बात है की इसमें भारत की ही बेईजत्ति हो रही है परन्तु हमारे देश की महान और एक मात्र बची हुई स्वघोषित देशभक्त सरकार अपने होठों को मोटे धागे से सील कर मुर्दानगी वाली चुप्पी साधे हुए है।


लेकिन इस देश की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई इस बेईजत्ति के जघन्य तथा अक्षम्य कृत्य को आप क्या नाम देना चाहेंगे-----

1. स्वयंभू ऐश करने वाले राजनेताओं द्वारा घोषित दलित विवादस्पद विषय ?
2. सभी ऐसे देशभक्त कार्यों की जननी स्थल 10 जनपथ का एक और महान कार्य ?
3. साधारण सी घटना जो ध्यान देने योग्य नहीं है ?
4. या की सारे काले कारनामों की संधि-संगम समागम स्थल स्विस बैंक का सर्विसिंग विषय ?

सबसे अहम् सवाल एक और है कि इतनी बड़ी बेईजत्ति जो देश की हुई और अभी भी जारी है लेकिन किसी भी मीडिया को इस खबर से कोई फर्क नहीं पड़ा जैसे की ये खबर उनके लिए कोई मायने नहीं रखती है या कहें तो इनके द्वारा बनाये गए एक मात्र देशभक्त पार्टी की भद पीट रही थी और एक और छुपा हुआ चेहरा उजागर हो रहा था तो मीडिया ने इस खबर को कहीं भी डाला ही नहीं और इस तरह से हमारी महानतम मीडिया ने अपने स्वामिभक्ति का परिचय दिया।

अब जवाब कौन देगा इस बेईजत्ति का जो देश की हुई है ये देश की जनता के हाथों में है अब जनता जनार्दन निर्णय ले की करना क्या है और कैसे करना है तथा देश की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई इस बेईजत्ति का जवाब कैसे देना है ये भी निर्णय करें ! ! !

वैसे एक और बात ज्ञात रहे की डॉ0 के आर नारायणन के नाम पर "डॉ0 के आर नारायणन सेण्टर फॉर दलित एंड मईनोरितिज स्टडीज (Dr. K. R. Narayanan Centre for Dalit and Minorities Studies) चलता है लेकिन दलित और मईनोरितिज के नाम पर फायदा किसको पहुँच रहा है ये भी जरा आंकलन करें आप सभी।


प्राइम ग्रुप में 23 अप्रैल 2012 को बिताया हुआ चित्रा नारायणन जी का सुखद पल (क्या यही वो पल हैं जो रिटायर्मेंट के बाद भी इस पद को छोड़ने नहीं दे रहे हैं और मौजूदा सरकार भी नहीं चाहती है ये महोदया हटें या पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और है )



27 Nov 2012

हे गिरधर गोपाल (Lord Krishna)


हे गिरधर गोपाल,
क्यूँ हो तुम ऐसे मूर्धन्य खड़े,
कर-कमलों में अपनी बांसुरी को धरे ?

क्यूँ नहीं करते तुम अपना शंखनाद 
जो किया था, तुमने उस महाभारत में ?
पुनः चुन अर्जुन सा पार्थ अपना 
क्यूँ नहीं रचते हो, तुम एक आखिरी महाभारत ?
देखते नहीं चल पड़ा है
पतन के पथ पर सम्पूर्ण भारत।
क्या बन गए हो पवन पुत्र हनुमान तुम
किस क्षण तक रहोगे यूँही तुम सुसुप्त ?
हे जग के पालनहार क्या हो जाने दोगे 
तुम इस मानवता को विलुप्त ?

जीवित रही मीरा, विषपान के पश्चात भी,
क्या हुआ तुमको हे नाथों के नाथ !
क्यूँ दिखाते हो जग को ऐसा,
जैसे हो गई तुम्हारी शक्ति विलुप्त !
कराहती ये धरा करती ये करुण पुकार है 
ले कर साथ पार्थ आ जाओ ऐ मेरे गिरधर गोपाल ।।




23 Nov 2012

UP Congress Committee General Secretary and UP Congress MLA Hijacked Indian Airlines


उत्तर प्रदेश कांग्रेस जेनेरल सेक्रेटरी और उत्तर प्रदेश कांग्रेस विधायक द्वारा विमान अपहरण


20 दिसंबर 1978 का दिन, इंडियन एयरलाइन्स की फ्लाइट IC-410 अपने उडान पर थी।

तभी 2 लोग खड़े हुए जो की दोस्त भी थे और इंडियन एयरलाइन्स की 132 लोगो की फ्लाइट को अपने कब्जे में ले लिया मतलब की "इंडियन एयरलाइन्स की फ्लाइट को हाईजैक" कर लिया। फिर एक मांग आई उन हाई-जैकर्स की-

"जेल में बंद कांग्रेस पार्टी की लीडर "इंदिरा गाँधी" को तुरंत आजाद किया जाये जो की गबन और धोखाधड़ी के मामले में सजा के तौर पर जेल गईं थीं तथा इंदिरा गाँधी के पुत्र संजय गाँधी के ऊपर से सारे केस हटाये जाएँ।"


अब ऐसे में कोई साधारण इन्सान किसी फ्लाइट को हाईजैक करे तो उसको कितने साल की सजा होती या होनी चाहिए ये तो मुझे नहीं पता है अच्छे से लेकिन हाँ इतना जरुर पता है की सजा जरुर होती। अरे मैं तो उन हाई-जैकर्स का नाम बताना ही भूल गया। उन हाई-जैकर्स का नाम था महान स्वामी भक्त स्वान "देवेन्द्र नाथ पांडे" तथा "भोला नाथ पांडे"।

अब तो इनके बारे में जान ही गए होंगे की कांग्रेस और इंदिरा के इन स्वामिभक्त स्वानों का क्या हुआ होगा। चलिए अगर नहीं जान पाए तो मैं आपको बता देता हूँ की क्या हुआ इन दोनों इंदिरा के स्वमिभाक्तों का जिन्होंने भारत सरकार द्वारा संचालित और उड़ान में अपने साथ इतने लोगों को ले जाने वाली फ्लाइट का पहले तो अपहरण किया फिर उसमे सवार सभी 132 यात्रियों की जान को खतरे में डाला, तो इसका इनाम इनको सन 1980 में दोनों अपहर्ताओं को पार्टी का टिकट दिया गया और दोनों अपहर्ता जीत भी गए। इनमे से एक अपहर्ता "भोला नाथ पांडे" 1980 से 1985 तक कांग्रेस के विधायक रहे तथा इनके साथी और दुसरे अपहर्ता और शायद इंदिरा गाँधी का बहुत करीबी "देवेन्द्र नाथ पांडे" तब के उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया जो की लगातार 2 विधानसभा सत्रों तक रहा। "देवेन्द्र नाथ पांडे" तो अभी तक "उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी" के "जेनेरल सेक्रेटरी" रहे। अभी "देवेन्द्र नाथ पांडे" सुल्तानपुर से इस बार लोकसभा का चुनाव लड़ने की जुगत भीड़ा रहे हैं फिर शायद एक-दो और विमान अपहरण की घटना हमें देखने को मिल जाए।

ऐसी ही एक और घटना 23 जनवरी 1993 को हुई थी जब श्री राम के भक्त "सतीश चन्द्र मिश्र", जो की सुल्तानपुर के थे, ने भी 48 यात्रियों को ले जा रही इंडियन एयरलाइन्स की फ्लाइट को हाईजैक किया था। सतीश चन्द्र मिश्रा के हाईजैक का कारण था तत्कालीन प्रधानमंत्री "पी वी नरसिम्हाराव" का "बाबरी मस्जिद" के गिरने पर दिया हुआ वक्तव्य जिसमे "पी वी नरसिम्हाराव" ने कहा था की "बाबरी मस्जिद को फिर से बनाया जायेगा"। लेकिन हाईजैक  के तुरंत  ही सतीश चाँद मिश्र जी ने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें 4 साल की जेल हो गयी। और 4 साल बाद भी इस शर्त पर छोड़े गए की खुद लखनऊ के सरोजिनी नगर पुलिस स्टेसन में हर महीने हाजिरी दोगे। 

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मैं दोनों घटनाओं की भर्त्सना करता हूँ क्यूंकि दोनों का ध्येय भले ही कुछ भी रहा हो लेकिन कार्य राष्ट्रविरोधी हुआ। परन्तु दोनों में कुछ विषमतायें भी थीं 

1. पहला निंदनीय कार्य देश के संविधान की रक्षा का प्रण लेने और खुद को देशभक्त कहने वाले कांग्रेस के नेताओं ने ये कार्य किया वहीँ दूसरी तरफ एक आम आदमी ने ये कार्य किया।

2. कांग्रेस के देशभक्त नेताओं ने विमान का अपहरण कांग्रेस के द्वारा टिकट पाने के लिए किया वही एक आम आदमी ने बाबरी मस्जिद ना बने इस क्षोभ में किया क्यूंकि उस आम आदमी को उकसाने वाला हमारा तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव था।

3. कांग्रेस के नेताओ ने विमान का अपहरण कोर्ट के आदेश पर जेल में बंद एक कैदी "इंदिरा गाँधी" को छुड़ाने के लिए और जेल में बंद होने के कगार पर खड़े "संजय गाँधी" के ऊपर से सारे केस हटाने के लिए किया गया वहीँ दूसरी विमान अपहरण की घटना भगवान "श्री राम" के स्थान के लिए और श्री राम की भक्ति में राजीव गाँधी और नरसिम्हाराव के उकसाने के चलते हुई।

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तो अब इससे क्या सीख मिलती है हमें--------

भाई मुझे तो ये सीख मिली की ये कांग्रेसी शुरू से केवल अपने हित का सोचते आये हैं और अपने हित के लिए ये पालतू कांग्रेसी स्वान किसी भी हद तक गिर सकते हैं, कोई भी देशद्रोह कर सकते हैं और कर भी रहे हैं लेकिन कोई इनको टच भी नहीं कर सकता है क्यूंकि इन देशद्रोहियों को बचाने वाला महान पवित्र अघोषित राजशाही परिवार "नकली और उधार का गाँधी" परिवार ही है।

लेकिन आपको कोई हक़ नहीं है की आप श्री राम या श्री राम से जुड़ीं किसी बात पर कुछ करें। अगर किया भी तो आपका कांग्रेसी होना जरुरी है और अगर कांग्रेसी नहीं हुए तो जेल की हवा खाओ क्यूंकि सारे कुछ भी करके केवल कांग्रेसी स्वान ही बाहर मजे में रह सकते हैं क्यूंकि उनके ऊपर किसका हाथ है ये तो सभी को पता है।

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अगर मजे करने हैं देश को बेच कर भी तो कांग्रेसी बनो, अगर दुनिया के हर मौज में घुस कर मजे करना है तो कांग्रेस ज्वाइन करो और छुट्टा देशद्रोह करो कोई टच भी नहीं करेगा और कांग्रेस खुल्ला तौर पर ज्वाइन नहीं कर सकते हो क्यूंकि घर में चूल्हा भी जलना है लेकिन कांग्रेस को सपोर्ट करना है तो कांग्रेस के देशद्रोहियों को चुनाव में जितवा दो आपका देशद्रोह को बढ़ावा देने में सहयोग मिल जायेगा उन देशद्रोहियों को।

जो पार्टी और पार्टी के नेता खुद देशद्रोह के कार्यों में लिप्त हैं वो देश में क्या कानून व्यवस्था बनायेंगे या देश में देशविरोधी या आतंकी गतिविधियों पर रोक लगायेंगे।

अब भैया कर लो तय की---------देशद्रोह में सहायता करना है या देशद्रोहियों को ख़तम करना है।


जय हिन्द, जय भारत 
वन्देमातरम




14 Nov 2012

Golden Temple, Indira Gandhi, Operation Blue-Star and Jarnail Singh Bhinderwale



पंजाब के स्वर्ण मंदिर की तबाही और उसके पहले का सच जो हमसे छुपाया गया 

अमृतसर, 25 साल पहले हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार के जख्म अब दिखने के लिए भरने लगे हैं और पंजाब अपने इतिहास को पीछे छोड़ प्रगति की राह पर आगे निकल चुका है। लेकिन 5 जून 1984 की उस रात की टीस अब भी महसूस की जा सकती है जब देश में पहली बार आस्था के सबसे बड़े मंदिर को आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए सेना हथियारबंद होकर पहुंची और इतिहास ने हमेशा हमेशा के लिए करवट बदल ली। मंदिर तो आतंकियों से आजाद हो गया लेकिन साथ ही गहरे जख्म भी दे गया।

क्या था उस रात और उस रात के पहले का असली सच?

5 जून 1984, समय शाम 7 बजे

ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू हो चुका था। सेना का मिशन अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों के चंगुल से छुड़ाना था। मंदिर परिसर के बाहर दोनों ओर से रुक-रुक कर गोलियां चल रही थीं। सेना को जानकारी थी कि स्वर्ण मंदिर के पास की 17 बिल्डिंगों में आतंकवादियों का कब्जा है। इसलिए सबसे पहले सेना ने स्वर्ण मंदिर के पास होटल टैंपल व्यूह और ब्रह्म बूटा अखाड़ा में धावा बोला जहां छिपे आतंकवादियों ने बिना ज्यादा विरोध किए समर्पण कर दिया।

रात साढ़े दस बजे

शुरुआती सफलता के बाद सेना ऑपरेशन ब्लू स्टार के अंतिम चरण के लिए तैयार थी। कमांडिंग ऑफिसर मेजर जनरल के एस बरार ने अपने कमांडोज़ को उत्तरी दिशा से मंदिर के भीतर घुसने के आदेश दिए। लेकिन यहां जो कुछ हुआ उसका अंदाजा बरार को नहीं था। चारों तरफ से कमांडोज़ पर फायरिंग शुरू हो गई। मिनटों में 20 से ज्यादा जवान शहीद हो गए। जवानों पर अत्याधुनिक हथियारों और हैंड ग्रेनेड से हमला किया जा रहा था। अब तक साफ हो चुका था कि बरार को मिली इंटेलिजेंस सूचना गलत थी।

सेना की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। हरमिंदर साहिब की दूसरी ओर से भी गोलियों की बारिश हो रही थी। लेकिन बरार को साफ निर्देश थे कि हरमिंदर साहिब की तरफ गोली नहीं चलानी है। नतीजा ये हुआ कि सेना की मंदिर के भीतर घुसने की तमाम कोशिशें बेकार गईं और कैज्युल्टी बढ़ने लगीं।

देर रात 12.30 बजे

आधी रात तक सेना मंदिर के अंदर ग्राउंड फ्लोर भी साफ नहीं कर पाई थी। बराड़ ने अपने दो कमांडिंग अफसरों को आदेश दिया कि वो किसी भी तरह पहली मंजिल पर पहुंचने की कोशिश करें। सेना की कोशिश थी किसी भी सूरत में अकाल तख्त पर कब्जा जमाने की, जो हरमिंदर साहिब के ठीक सामने है। यही भिंडरावाले का ठिकाना था। लेकिन सेना की एक टुकड़ी को छोड़ कर कोई भी मंदिर के भीतर घुसने में कामयाब नहीं हो पाया था। अकाल तख्त पर कब्जा जमाने की कोशिश में सेना को एक बार फिर कई जवानों की जान से हाथ धोना पड़ा। सेना की स्ट्रैटजी बिखरने लगी थी।

रात 2 बजे

तमाम कोशिशों के बाद अब साफ होने लगा था कि आतंकवादियों की तैयारी जबर्दस्त है और वो किसी भी हालत में आत्मसमर्पण नहीं करेंगे। सेना अपने कई जवान खो चुकी थी। इस बीच मेजर जनरल के एस बरार के एक कमांडिंग अफसर ने बरार से टैंक की मांग की। बरार ये समझ चुके थे कि इसके बिना कोई चारा भी नहीं है। सुबह होने से पहले ऑपरेशन खत्म करना था क्योंकि सुबह होने का मतलब था और जानें गंवाना।

सुबह 5 बजकर 10 मिनट

बरार को सरकार से टैंक इस्तेमाल करने की इजाज़त मिली। लेकिन टैंक इस्तेमाल करने का मतलब था मंदिर की सीढ़ियां तोड़ना। सिखों के सबसे पवित्र मंदिर की कई इमारतों को नुकसान पहुंचाना। 5 बजकर 21 मिनट पर सेना ने टैंक से पहला वार किया। आतंकवादियों ने अंदर से एंटी टैंक मोर्टार दागे। अब सेना ने कवर फायरिंग के साथ टैंकों से हमला शुरू किया। चारों तरफ लाशें बिछ गईं।

सुबह के 7.30 बजे

सूरज की रोशनी ने उजाला फैला दिया था। अब तक अकाल तख्त सेना के कब्जे से दूर था और सेना को जानमाल का नुकसान बढ़ता जा रहा था। इसी बीच अकाल तख्त में जोरदार धमाका हुआ। सेना को लगा कि ये धमाका जानबूझकर किया गया है, ताकि धुएं में छिपकर भिंडरावाले और उसका मिलिट्री मास्टरमाइंड शाहबेग सिंह भाग सकें। सिखों की आस्था का केंद्र अकाल तख्त को जबर्दस्त नुकसान हुआ।

सुबह 11 बजे

अचानक बड़ी संख्या में आतंकवादी अकाल तख्त से बाहर निकले और गेट की तरफ भागने लगे लेकिन सेना ने उन्हें मार गिराया। उसी वक्त करीब 200 लोगों ने सेना के सामने आत्मसमर्पण किया। लेकिन अब तक भिंडरावाले और उसके मुख्य सहयोगी शाहबेग सिंह के बारे में कुछ पता नहीं लग पा रहा था। भिंडरावाले के कुछ समर्थक सेना को अकाल तख्त के भीतर ले गए जहां 40 समर्थकों की लाश के बीच भिंडरावाले, उसके मुख्य सहयोगी मेजर जनरल शाहबेग सिंह और अमरीक सिंह की लाश पड़ी थी। अमरीक भिंडरावाले का करीबी और उसके गुरु का बेटा था।

6 तारीख की शाम तक स्वर्ण मंदिर के भीतर छिपे आतंकवादियों को मार गिराया गया था लेकिन इसके लिए सेना को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। सिखों की आस्था का केन्द्र अकाल तख्त नेस्तनाबूद हो चुका था। इस वक्त तक किसी को अंदाज़ा नहीं था कि ये घटना पंजाब के इतिहास को हमेशा के लिए बदलने वाली है।

स्वर्ण मंदिर के बाद मंदिर परिसर के बाहर की बिल्डिंगें खाली करवाने में सेना को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। सेना के मुताबिक मंदिर के बाहर के ऑपरेशन में अकाली नेता हरचंद सिंह लोंगोवाल और गुरचरण सिंह तोहड़ा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया।

 हालांकि अकाली नेता सेना के इस बयान को झूठा करार देते हैं। इस ऑपरेशन में कई आम लोगों की भी जान गई। खुद सेना ने बाद में माना कि 35 औरतें और 5 बच्चे इस ऑपरेशन में मारे गए। हालांकि गैर सरकारी आंकड़े इससे कहीं ज्यादा है।

ऑपरेशन ब्लू स्टार में कुल 492 जानें गईं। इस ऑपरेशन में सेना के 4 अफसरों समेत 83 जवान शहीद हुए। वहीं जवानों सहित 334 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। पूर्व सेना अधिकारियों ने ऑपरेशन ब्लू स्टार की जमकर आलोचना की। उनके मुताबिक ये ऑपरेशन गलत योजना का नमूना था।

क्या वाकई जरूरी था ऑपरेशन ब्लू स्टार ?

बंटवारे की आग ने पंजाब को तोड़ कर रख दिया। यही वो वक्त था जब पंजाब में कट्टरपंथी विचारधारा जन्म लेने लगी। सिखों के सबसे बड़े तीर्थ स्वर्ण मंदिर समेत सभी गुरुद्वारों का प्रबंधन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी के अधीन आ चुका था और एसजीपीसी की पॉलिटिकल विंग शिरोमणि अकाली दल सिख अस्मिता की राजनीति शुरू कर चुका था। आनंदपुर साहिब में अलग सिख राज्य समेत पंजाब के लिए कई मांगें रखी गईं जो अकाली राजनीति का आधार बन गईं।

इसी बीच अमृतसर से कुछ दूर चौक मेहता के दमदमी टकसाल में सात साल के एक लड़के ने सिख धर्म की पढ़ाई शुरू की। उसका नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले। कुछ ही सालों में भिंडरावाले की धर्म के प्रति कट्टर आस्था ने उसे टकसाल के गुरुओं का प्रिय बना दिया। जब टकसाल के गुरु की मौत हुई तो उन्होंने अपने बेटे की जगह भिंडरावाले को टकसाल का प्रमुख बना दिया। आज भी टकसाल में भिंडरावाले को शहीद का दर्जा दिया जाता है।

1966 में केन्द्र सरकार ने हिमाचल और हरियाणा को निकाल कर सिख बाहुल्य अलग पंजाब की मांग मान ली। लेकिन सिख राजनीति पर पकड़ बनाए रखने के लिए अकालियों ने चंडीगढ़ को पंजाब में मिलाने और पंजाब की नदियों पर हरियाणा और राजस्थान के अधिकार खत्म करने की मांग शुरू कर दी। कई जानकार मानते हैं कि ऐसे वक्त में इंदिरा गांधी को जरूरत थी ऐसे नेता की जो अकालियों की राजनीति खत्म कर सके। अब ये एक खुला सच है कि कांग्रेस ने इसी काम के लिए भिंडरावाले को प्रमोट किया। जानकार मानते हैं कि भिंडरावाले की अपनी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी। भिंडरावाले ने निरंकारियों की खिलाफत के साथ कट्टरपंथी राजनीति की शुरुआत की।

1978 में अमृतसर में निरंकारियों के सम्मेलन के दौरान भिंडरावाले समर्थकों और निरंकारियों के बीच जानलेवा झगड़ा हुआ जिसमें भिंडरावाले के 13 समर्थक मारे गए। इस एक घटना ने भिंडरावाले को हिंसा का लाइसेंस दे दिया। भिंडरावाले पर तीन हाई प्रोफाइल हत्याओं के आरोप लगे लेकिन कांग्रेस के राज में ये आरोप कभी साबित नहीं हो पाए।

पंजाब अब राजनीतिक हत्याओं का अखाड़ा बन चुका था। सरेआम लोगों को बस से निकाल कर कत्ल कर दिए जाने की खबरें आने लगीं। ग्रामीण सिख भिंडरावाले से जुड़ने लगे। भिंडरावाले को भी अहसास होने लगा कि वो सिख हितों का अकेला रखवाला बन चुका है। देश-विदेश में भिंडरावाले की लोकप्रियता आसमान छूने लगी।

इस वक्त तक भी केन्द्र की इंदिरा गांधी सरकार ने भिंडरावाले को रोकने की कोशिश नहीं की। ना ही पंजाब में शांति के लिए अकालियों से समझौता किया। जबकि एसजीपीसी अध्यक्ष तोहड़ा और अकाली नेता लोंगोवाल का अब भी प्रभाव था और वो समझौते के लिए बार-बार दिल्ली आने को राजी थे।

साल 1982 में भिंडरावाले ने अचानक अपना हेडक्वार्टर स्वर्ण मंदिर के अंदर अकाल तख्त में बनाने की कवायद शुरू कर दी। उसे लगने लगा था कि अब सरकार उसपर एक्शन ले सकती है। लेकिन भिंडरावाले को भरोसा था कि सेना मंदिर के भीतर घुसने की हिम्मत नहीं करेगी। अकाल तख्त में अपना हेडक्वार्टर बनाने के लिए भिंडरावाले ने तोहड़ा को राजी कर लिया। मुख्यमंत्री बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाल रहे तोहड़ा को भी आखिर भिंडरावाले की जरूरत थी।

सरकार को ये खबर मिल चुकी थी कि भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर को किले में तब्दील करना शुरू कर दिया है और मंदिर के अंदर हथियारों का बड़ा ज़खीरा आ चुका है। अब ये तय हो गया था कि सिखों के सबसे पवित्र तीर्थ पर आर्मी एक्शन होगा। लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा था कि ऑपरेशन ब्लू स्टार का स्वरूप इतना भयानक होगा। सेना के मुताबिक आखिरी वक्त तक भिंडरावाले को आत्मसमर्पण का मौका दिया गया लेकिन भिंडरावाले ने अपना रास्ता तय कर लिया था। वो अपने लोगों के बीच शहादत का दर्जा हासिल करना चाहता था।

तो अब सवाल उठता है की स्वर्ण-मंदिर की तबाही और हिन्दू-सिख दंगों के पीछे असल में किसका हाथ था?


साभार: IBN7 Website


9 Nov 2012

मीडिया का स्वतंत्र और निष्पक्ष कार्य


स्वतंत्र कही जाने वाली मीडिया का स्वतंत्र और निष्पक्ष कार्य


बीजेपी या हिंदुत्व से जुड़ा अगर कोई इन्सान बयान देता है तो मीडिया उसको तोड़-मरोड़ कर पेस किया जाता है ताकि उस इन्सान को और उसके बयान को गलत दिखाया जा सके.....वहीँ कांग्रेस या कांग्रेस पोषित या गैर हिन्दू के बयान को भी तोड़ मरोड़ कर पेस करते हैं लेकिन वो तोडना-मरोड़ना इस लिए होता है की कैसे उसको सही ठहराया जा सके.....या उसको दिखाया ही नहीं जाता है.

इसी प्रकार बीजेपी या हिंदुत्व के लोगों के खिलाफ अगर आरोप लगे जो भले झूठा हो लेकिन पहले ३ पन्ने पर ही मीडिया उसको छापे रहती है.....वहीँ कांग्रेस या कांग्रेस पोषित और गैर हिन्दू के ऊपर आरोप सिद्ध भी हो जाये लेकिन उनकी खबर को ढुंढना पड़ता है.....


तो इस तरह से होता है स्वतंत्र और निष्पक्ष कार्य मीडिया के द्वारा.




सेकुलरिज्म का तड़का




बनारस का बम विस्फोट और रामपुर सीआरपिऍफ़ कैम्प हुए हमारे जवानों के नरसंहार याद है या भूल गए........उनके आरोपियों को सौहार्द्र दिखाने के नाम पर छोड़ा जा रहा है ताकि मुल्ला तुस्टीकरण को धर्मनिरपेक्षता की चादर से सजाया जा सके.....और आम जनता को अँधा और मुर्ख बनाया जा सके

वैसे धर्मनिरपेक्षता के ढकोसले के पीछे बैठे ढकोसले-चंद इन मुल्लों के वोटों की भीख के लिए देश से और कितना गद्दारी करेंगे....और देश की जनता का सब्र का बाँध आखिर कब टूटेगा....आखिर इतना सब्र क्यूँ दिखा रही है जनता....क्या कंठ से आवाज निकाल ली गई है.....कान हैं या कौवा ले कर गया...या की तुम्हारे हाथों में दही जम गया है.....

चलो कोई बात नहीं आप अभी दिवाली मनाओ....उसके बाद क्रिस्मश, फिर अंग्रेजों का नया साल......सब त्यौहार पड़े हैं....चिंता की बात नहीं.....अभी आपके घर पर बिजली नहीं गिरी है...हाँ भगवान से प्रार्थना करूँगा की वो उस बिजली से आपके परिवार को बचाए रखें...

4 Nov 2012

भारतियों के खून पसीने की कमाई उड़ाई

कांग्रेस पार्टी की रैली लेकिन भारत सरकार और भारतियों के खून पसीने की कमाई उड़ाई गई.

कांग्रेस की राम लीला मैदान में ४ नवम्बर की दिल्ली सरकार के लिय की गई रैली के लिए ५ स्पेशल ट्रेनें चलायीं गईं, १५ ट्रेनों में स्पेशल डिब्बे जोड़े गए, सड़क परिवहन वाले हकलान थे बस का इन्तेजाम करने में ताकि लोगों को थोक के भाव में कांग्रेस की बेशर्मी निहित जनशक्ति को दिखाने के लिए भेड़-बकरी की तरह कोंच कर भेजा सके. इसके साथ ही साथ सरकारी कार्यालयों में कार्य करने वाले जिन सरकारी मातहतों को छुट्टी के दिन गधों के तरह लाद कर लाया गया था उनकी अगले ७ दिन की वैतनिक छुट्टी, मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों को ११०० रुपये का लालच जो बाद में शायद दिए भी नहीं गए होंगे.

इसे कहते हैं भोंडापन जिसमे कांग्रेस ने अपना काम तो कर लिया लेकिन इस ४५ मिनट के इस नौटंकी के लिए देश का करोडो रूपया बाप का माल समझ सोनिया और उसके पालतू स्वानों ने गन्दी नाली में बहा दिया. लेकिन कहने को और दिखाने को ये आम लोगों की पार्टी है जो जनहित के बारे में सोचती है और देश के बारे में सोचती है. क्या देश के बारे में सोचने वाली पार्टी ऐसा कुकर्म करेगी की देश को पैसे को अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए इस्तेमाल करे. इसमें मैं अपने देश के लिए समर्पित मीडिया को भी धन्यवाद देना चाहूँगा की उन्होंने इस बात को लोगों तक पहुँचाने की परेशानी नहीं उठाई और आराम से केवल १० लोगों को बढ़ा कर १०० लोग दिखाने में लगी रही और कांग्रेस तथा उसकी मालकिन सोनिया गाँधी को आगे भी इस प्रकार के कार्यक्रम में लूटने का भरपूर मौका मिल सके क्यूंकि चुनावी सावन तो अभी उमड़ा है चुनावी बारिशों के झंझावत तो अभी देखने बाकी हैं. इस तरीके के सराहनीय कार्य से हमारे देश की मीडिया ने देश की जनता का और जनता के पैसों के भी भरपूर मान रखा ताकि उनको आगे भी कैसे लूटा जा सके और देश की जनता को बेवकूफ बनाया जा सके.

जहाँ देश आज महंगाई की मार से पीड़ित ही वरन महंगाई ने जनता की कमर तोड़ जनता को जमीं पर घिसट-घिसट मरने को छोड़ दिया है वहां इस तरह जनता के पैसे जो जनता के उपयोग में लाये जा सकते हैं उसको गन्दी नाली में भोंडी पहचान और कटी हुई नाक को ऊँचा करने के लिए बहाया जा रहा है और मीडिया इसका मूक समर्थन कर रही है और जनता मूकदर्शक बन अपना ही उपहास उड़ते हुए देख रही है. ऐसा देश है मेरा ! ! ! 

चलिए अब जैसा भी है इस चुनावी सावन में कुछ तूफ़ान लाने का जिम्मा हम अपने सर पर उठाते हैं और औकात भूल जाने वालों को उनकी औकात याद दिलाते हैं.

जय हिन्द
वन्देमातरम

WAITING FOR INDIAN LION

देश को इन्तेजार है "भारत के असली शेर" का 






आज बड़ी व्याकुलता है मन में, रोम-रोम में सिहरन सी है, आखिर इस काली रात की सुबह कब होगी, कब हमारा भारत और हमारे भारत के भोले-भाले लेकिन दिग्भ्रमित लोग एक जगमगाती सुबह का दर्शन करेंगे, कब हमारे देश में रोबोट नहीं एक शेर देश को सोच कर देश के लिए निर्णय लेने वाला आएगा, कब हमारे देश में व्याप्त इस कैंसर रूपी राक्षस से हमें छुटकारा मिलेगा, कब भारत को देशी शेर मिलेगा, कब भारत को नरेन्द्र भाई मोदी मिलेंगे.



मैं रुकुंगा नहीं, मैं थकुंगा नहीं, मैं झुकूँगा नहीं, मैं टुटूगा नहीं, बल्कि मैं नर्म घास के मानिंद रहूँगा और इस बुरे वक़्त रूपी काली रात को अपने ऊपर से यूँही गुजर जाने दूंगा जैसे की बड़े से बड़ा तूफान गुजर जाता है और फिर अपने पत्तियों पर ओस की बूंदे लिए नए सूरज की रौशनी में नहा कर हीरे की भांति चमचमाते हुए मैं नए सूर्योदय का स्वागत करूँगा, मैं एक नए युग का स्वागत करूँगा, मैं आपने देश में विकास का स्वागत करूँगा मैं विकासपुरुष का स्वागत करूँगा, मैं "नरेन्द्र भाई मोदी" का लाल किले की प्राचीर पर स्वागत करूँगा.


ARE WE UNITE???

आज देश का हर इन्सान चाहे वो देश के किसी भी कोने से हो परेसान है और बहुत ही ज्यादा ही परेसान है. लेकिन इस परेशानी के बाद भी, जो देशवाशियों की रातों की नींद को उड़ा रखा है, इन परेशानियों को भूल दुसरे प्रदेश वालों से जलन का भाव रखते हैं, और हमेसा निम्न दृष्टि से रखते हैं और बेईजत्त करने का एक मौका भी नहीं छोड़ते हैं. उत्तर प्रदेश वाला तामिल से जलता है, महाराष्ट्र बिहारी से जलता है, बंगाल वाले सभी से जलते हैं, जम्मू कश्मीर तो खैर खुद में ही जल गया, केरला की आंच अभी हमारे घरों तक नहीं पहुंची, उत्तर-पूर्व भारत के बारे में हमें कोई खबर पता नहीं चलती है. लेकिन आखिर ऐसा दुर्भाव हमारे अन्दर आया कहाँ से जबकि कांग्रेस रही सत्ता में और कांग्रेस तो कहती है की वो हमेसा लोगों को एक-दुसरे से जोडती है और सभी भारतीय एक हैं ऐसा दिखाती है तो ये कार्य हुआ कैसे. क्या हमारे में से किसी ने इस पर कुछ सोचा है? जबकि हमारे देश के हर प्रदेश का देश के लिए बहुत योगदान रहा है फिर चाहे वो बिहार हो या उड़ीसा हो या तमिलनाडु हो या महाराष्ट्र हो या जम्मू कश्मीर हो या फिर मेघालय मिजोरम अरुणांचल त्रिपुरा और आसाम हैं और इन सभी की अपनी अलग पहचान और उपयोगिता है देश के अन्दर. लेकिन एक देश में रह कर भी हम एक नहीं हैं.


जहाँ तक मुझे प्रतीत होता है की जैसे अंगरेज ऊपर से बहुत विनम्र प्रतीत होते थे लेकिन उनके अन्दर एक धरना होती थी की "फुट डालो और राज करो" वैसे अंगरेजों के द्वारा चालू किया गया अंगरेजों का मनोरंजन करने के लिए बने कांग्रेसी चाहते हैं की हम भारतवाशी कभी एक न हो पायें चाहे कोई भी परिस्थिति क्यूँ ना आ जाये. हम पढ़े लिखे होने के बाद भी आज तक इस कांग्रेस रूपी राक्षस के हाथों की कठपुतली बन घूम रहे हैं. समय आ गया है जागने का और कुछ नहीं तो खुद को जानने का, अपने आस-पास के परिवेश को जानने का, अपने प्रदेश को जानने का, अपने देश के दुसरे प्रदेशों को जानने का और सबसे बड़ी चीज देश को जानने का की हमारा देश अभी किसी परिस्थिति में है और हमारे बाद आज़ाद हुए देश किस परिस्थिति में हैं. उन देशों से अपने देश को पीछे रखने में किसका हाथ है और उन देशों को पीछे धकेलने के लिए हमारे देश को क्या जरुरत है और उसके लिए हमें क्या करना चाहिए.

हमें "अनेकता में एकता", जो हमारे देश की मूल पहचान है, उसे फिर से न सिर्फ जिवंत करना है बल्कि इसके खिलाफ कार्य करने वालों मुंह काला हो जाये.


3 Nov 2012

बाबा माधवदास की वेदना और ईसाई मिसनरियां


कई वर्ष पहले दूर दक्षिण भारत से बाबा माधवदास नामक एक संन्यासी दिल्ली में ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ प्रकाशन के कार्यालय पहुँचे। उन्होंने सीताराम गोयल की कोई पुस्तक पढ़ी थी, जिसके बाद उन्हें खोजते-खोजते वह आए थे। मिलते ही उन्होंने सीताराम जी के सामने एक छोटी सी पुस्तिका रख दी। यह सरकार द्वारा 1956 में बनी सात सदस्यीय जस्टिस नियोगी समिति की रिपोर्ट का एक सार-संक्षेप था। यह संक्षेप माधवदास ने स्वयं तैयार किया, किसी तरह माँग-मूँग कर उसे छपाया और तब से देश भर में विभिन्न महत्वपूर्ण, निर्णयकर्ता लोगों तक उसे पहुँचाने, और उन्हें जगाने का अथक प्रयास कर रहे थे। किंतु अब वह मानो हार चुके थे और सीताराम जी तक इस आस में पहुँचे थे कि वह इस कार्य को बढ़ाने का कोई उपाय करेंगे।

माधवदास ने देश के विभिन्न भागों में घूम-घूम कर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ स्वयं ध्यान से देखी थीं। उन्हें यह देख बड़ी वेदना होती थी कि मिशनरी लोग हिन्दू धर्म को लांछित कर, भोले-भोले लोगों को छल से जाल में फँसा कर, दबाव देकर, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर आदि विधियों से ईसाइयत में धर्मांतरित करते थे। सबसे बड़ा दुःख यह था कि हिन्दू समाज के अग्रगण्य लोग, नेता, प्रशासक, लेखक इसे देख कर भी अनदेखा करते थे। यह भी माधवदास ने स्वयं अनुभव किया। वर्षों यह सब देख-सुन कर अब वे सीताराम जी के पास पहुँचे थे। सीताराम जी ने उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने न केवल जस्टिस नियोगी समिति रिपोर्ट को पुनः प्रकाशित किया, वरन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की ऐतिहासिक क्रम में समीक्षा करते हुए ‘छद्म-पंथनिरपेक्षता, ईसाई मिशन और हिन्दू प्रतिरोध’ नामक एक मूल्यवान पुस्तिका भी लिखी। पर ऐसा लगता है कि हिन्दू उच्च वर्ग की की काहिली और अज्ञान पर शायद ही कुछ असर पड़ा हो।

उदाहरण के लिए, सात वर्ष पहले जब ‘तहलका’ ने साप्ताहिक पत्रिका आरंभ की तो अपना प्रवेशांक (7 फरवरी 2004) भारत में ईसाई विस्तार के अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र पर केंद्रित किया। इस के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक विदेशी चर्च संगठनों द्वारा भारी अनुदान, अनेक मिशनरी संगठनों के प्रतिनिधियों से बात-चीत, उनके दस्तावेज, मिशनरियों द्वारा भारत के चप्पे-चप्पे का सर्वेक्षण और स्थानीय विशेषताओं का उपयोग कर लोगों का धर्मांतरण कराने के कार्यक्रम आदि संबंधी भरपूर खोज-बीन और प्रमाण ‘तहलका’ ने जुटा कर प्रस्तुत किया था। किंतु उस पर भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों, प्रशासकों की क्या प्रतिक्रिया रही? कुछ नहीं, एक अभेद्य मौन! मानो उन्होंने कुछ न सुना हो। जबकि मिशनरी संगठनों में उस प्रकाशन से भारी चिंता और बेचैनी फैली (क्योंकि वे उस पत्रिका को संघ-परिवार का दुष्प्रचार बताकर नहीं बच सकते थे!)। उन्होंने तरह-तरह के बयान देकर अपना बचाव करने की कोशिश की। मगर हिन्दू समाज के प्रतिनिधि निर्विकार बने रहे! हमारे जिन बुद्धिजीवियों, अखबारों, समाचार-चैनलों ने उसी तहलका द्वारा कुछ ही पहले रक्षा मंत्रालय सौदों में रिश्वतखोरी की संभावना का पर्दाफाश करने पर खूब उत्साह दिखाया था, और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस समेत सबके इस्तीफे की माँग की थी। वही लोग उसी अखबार के इस पर्दाफाश पर एकदम गुम-सुम रहे। मानो इस में कोई विशेष बात ही न हो।

ठीक यही पचपन वर्ष पहले नियोगी समिति की रिपोर्ट आने पर भी हुआ था। जहाँ मिशनरी संगठनों में खलबली मच गई थी, वहीं हमारे नेता, बुद्धिजीवी, अफसर, न्यायविद सब ठस बने रहे। अंततः संसद में सरकार ने यह कह कर कि समिति की अनुशंसाएं संविधान में दिए मौलिक अधिकारों से मेल नहीं खाती, मामले को रफा-दफा कर दिया। कृपया ध्यान दें – किसी ने यह नहीं कहा कि समिति का आकलन, अन्वेषण, तथ्य और साक्ष्य त्रुटिपूर्ण है। बल्कि सबने एक मौन धारण कर उसे चुप-चाप धूल खाने छोड़ दिया। (उसके तैंतालीस वर्ष बाद, 1999 में, यही जस्टिस वधवा कमीशन रिपोर्ट के साथ भी हुआ, जिसने उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस की हत्या के संबंध में विस्तृत जाँच की थी)। हिन्दू सत्ताधारियों व बौद्धिक वर्ग की इस भीरू भंगिमा को देख कर सहमे हुए मिशनरी संगठनों का साहस तुरत स्वभाविक रूप से बढ़ गया। सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में उनकी गतिविधियाँ इतनी अशांतिकारक हो गईं कि उड़ीसा व मध्य प्रदेश की सरकारों को क्रमशः 1967 और 1968 में धूर्तता और प्रपंच द्वारा धर्मांतरण कार्यों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने पड़े। उस से माधवदास जैसे दुखियारों को कुछ प्रसन्नता मिली। मगर वह क्षणिक साबित हुई क्योंकि उन कानूनों को लागू कराने में किसी ने रुचि नहीं ली। जिन स्थानों में मिशनरी सक्रिय थे, वहाँ इन कानूनों को जानने और उपयोग करने वाले नगण्य थे। जबकि शहरी क्षेत्रों में जो हिन्दू यह सब समझने वाले और समर्थ थे, उन्होंने रुचि नहीं दिखाई कि इन कानूनों के प्रति लोगों को जगाकर चर्च के विस्तारवादी आक्रमण को रोकें।
एक अर्थ में आश्चर्य है कि ब्रिटिश भारत में मिशनरी विस्तारवाद के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध सशक्त था, जबकि स्वतंत्र भारत में यह मृतप्राय हो गया। 1947 से पहले के हमारे राष्ट्रीय विचार-विमर्श, साहित्य, भाषणों आदि में इस का नियमित उल्लेख मिलता है कि विदेशी मिशनरी भारतीय धर्म-संस्कृति को लांछित, नष्ट करने और भारत को विखंडित कर जहाँ-जहाँ संभव हो स्वतंत्र ईसाई राज्य बनाने के प्रयास कर रहे हैं। तब हमारे नेता, लेखक, पत्रकार अच्छी तरह जानते थे कि यूरोपीय साम्राज्यवाद और ईसाई विस्तारवाद दोनों मूलतः एक दूसरे के पूरक व सहयोगी हैं। इसलिए 1947 से पहले के राष्ट्रीय लेखन, वाचन में इस के प्रतिकार की चिंता, भाषा भी सर्वत्र मिलती है। किंतु स्वतंत्रता के बाद स्थिति विचित्र हो गई। स्वयं देश के संविधान में धर्म प्रचार को ‘मौलिक अधिकार’ के रूप में उच्च स्थान देकर मिशनरी विस्तारवाद को सिद्धांततः वैधता दे दी गई!

जबकि स्वतंत्रता से पहले गाँधीजी जैसे उदार व्यक्ति ने भी स्पष्ट कहा था कि यदि उन्हें कानून बनाने का अधिकार मिल जाए तो वह “सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे जो अनावश्यक अशांति की जड़ है”। पर उन्हीं गाँधी के शिष्यों ने, यह सब जानते हुए भी कि कौन, किन तरीकों, उद्देश्यों से धर्मांतरण कराते हैं, मिशनरियों को उलटे ऐसी छूट दे दी जो उन्हें ब्रिटिश राज में भी उपलब्ध न थी। देशी-विदेशी मिशनरी संगठनों को यह देख आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई, जो उन्होंने छिपाई भी नहीं! उन्होंने भारत को अपने प्रमुख निशाने के रूप में चिन्हित कर लिया। परिणामस्वरूप अंततः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अलगाववाद की आँच सुलग उठी। इसके पीछे असंदिग्ध रूप से मिशनरी प्रेरणाएं थीं।

इसी पृष्ठभूमि में हम बाबा माधवदास जैसे देशभक्तों की वेदना समझ सकते हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता ने हिन्दू धर्म-संस्कृति व समाज की सुरक्षा निश्चित करने के बदले, उल्टे उसे अपने हाल पर छोड़ दिया है। विदेशी, साम्राज्यवादी, सशक्त संगठनों को खुल कर खेलने से रोकने का कोई उपाय नहीं किया। उन का अवैध, धूर्ततापूर्ण खेल देख-सुन कर भी स्वतंत्र भारत के नेता, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी उस से मुँह चुराने लगे। नियोगी समिति ने जो प्रमाणिक आकलन किया था, उसका महत्व इस में भी है कि स्वतंत्र भारत के मात्र पाँच-सात वर्षों में मिशनरी धृष्टता कितनी बेलगाम हो चली थी। उस रिपोर्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उस की एक-एक बात और अनुशंसाएं आज भी उतनी ही समीचीन हैं। कम से कम हम उसे पढ़ भी लें तो बाबा माधवदास की आत्मा को संतोष होगा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में ईसाई मिशनरी संगठनों को भय था कि अब उन का कारोबार बाधित होगा। आखिर स्वयं गाँधीजी जैसे सर्वोच्च नेता ने खुली घोषणा की थी कि कानून बनाने का अधिकार मिलने पर वह सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे। किंतु मिशनरियों की खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि उन की दुकान बंद कराने के बदले, भारतीय संविधान में धर्मांतरण कराने समेत धर्म प्रचार को ‘मौलिक अधिकार’ के रूप में उच्च स्थान मिल गया है! इसमें किसी संदेह को स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने दूर कर दिया था। नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पत्र (17 अक्तूबर 1952) में स्पष्ट कर दिया, “वी परमिट, बाई अवर कंस्टीच्यूशन, नॉट ओनली फ्रीडम ऑफ कांशेंस एंड बिलीफ बट आलसो प्रोजेलाइटिज्म”। और यह प्रोजेलाइटिज्म मुख्यतः चर्च-मिशनरी करते हैं और किन हथकंडों से करते है, यह उस समय हमारा प्रत्येक नेता जानता था!

जब स्वतंत्र भारत का संविधान बन रहा था, तो संविधान सभा में इस पर हुई पूरी बहस चकित करने वाली है। कि कैसे हिंदू समाज खुली आँखों जीती मक्खी निगलता है। एक ही भूल बार-बार करता, दुहराता है, चोट खाता है, फिर भी कुछ नहीं सीखता! धर्मांतरण कराने समेत ‘धर्म-प्रचार’ को मौलिक अधिकार बनाने का घातक निर्णय मात्र एक-दो सदस्यों की जिद पर कर दिया गया। इसके बावजूद कि धर्म-प्रचार के नाम पर इस्लामी और ईसाई मिशनरियों द्वारा जुल्म, धोखा-धड़ी, रक्तपात और अशांति के इतिहास से हमारे संविधान निर्माता पूर्ण परिचित थे। इसीलिए संविदान सभा में पुरुषोत्तमदास टंडन, तजामुल हुसैन, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, हुसैन इमाम, जैसे सभी सदस्य ‘धर्म-प्रचार’ के अधिकार को मौलिक अधिकार में जोड़ना अनुचित मानते थे। फिर भी केवल “ईसाई मित्रों का ख्याल करते हुए” उसे स्वीकार कर बैठे! यह उस हिन्दू भोलेपन का ही पुनः अनन्य उदाहरण था जो ‘पर-धर्म’ को गंभीरता-पूर्वक न जानने-समझने के कारण इतिहास में असंख्य बार ऐसी भूलें करता रहा है।

इसीलिए स्वतंत्र भारत में मिशनरी कार्य-विस्तार की समीक्षा करते हुए जेसुइट मिशनरी फेलिक्स अलफ्रेड प्लैटर ने अपनी पुस्तक द कैथोलिक चर्च इन इंडियाः येस्टरडे एंड टुडे (1964) में भारी प्रसन्न्ता व्यक्त की। उन्होंने सटीक समझा कि भारतीय संविधान ने न केवल भारत में चर्च को अपना धंधा जारी रखने की छूट दी है, बल्कि “टु इनक्रीज एंड डेवलप हर एक्टिविटी ऐज नेवर बिफोर विदाउट सीरियस हिंडरेंस ऑर एंक्जाइटी”। यह निर्विघ्न, निश्चिंत, अपूर्व छूट पाने का ही परिणाम हुआ कि चार-पाँच वर्ष में ही कई क्षेत्रों में मिशनरी गतिविधियाँ अत्यंत उछृंखल हो गईं। तभी सरकार ने मिशनरी गतिविधियों का अध्ययन करने और उस से उत्पन्न समस्याओं पर उपाय सुझाने के लिए 1954 में जस्टिस बी. एस. नियोगी की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय समिति का गठन किया। इस में ईसाई सदस्य भी थे। समिति ने 1956 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसका संपूर्ण आकलन आँखें खोल देने वाला था। किंतु कोई कार्रवाई नहीं हुई। न किसी ने उस के तथ्यों, साक्ष्यों को चुनौती दी, न खंडन किया। केवल मौन के षड्यंत्र द्वारा उसे इतिहास के तहखाने में डाल दिया गया।

तब से आधी शती बीत गई, किंतु उस के आकलन और अनुशंसाएं आज भी सामयिक हैं। जो सामग्री नियोगी समिति ने इकट्ठा की उस से वह इस परिणाम पर पहुँची कि मिशनरी गतिविधियाँ किसी राज्य या देश की सीमाओं में स्वायत्त नहीं है। उनका चरित्र, संगठन और नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय है। जब समिति ने कार्य आरंभ किया तब पहले तो ईसाई मिशनों ने सहयोग की भंगिमा अपनाई। किंतु जब उन्होंने देखा कि समिति अपने काम में गंभीर है तब उन्होंने बहिष्कार किया। फिर नागपुर उच्च न्यायालय जाकर इस का कार्य बंद कराने का प्रयास किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि समिति का गठन और कार्य किसी नियम के विरुद्ध नहीं है।

अपनी जाँच-पड़ताल के सिलसिले में नियोगी समिति चौदह जिलों में, सतहत्तर स्थानों पर गई। वह ग्यारह हजार से अधिक लोगों से मिली, उस ने लगभग चार सौ लिखित बयान एकत्र किए, इसकी तैयार प्रश्नावली पर तीन सौ पचासी उत्तर आए जिस में पचपन ईसाइयों के थे और शेष गैर-ईसाइयों के। समिति ने सात सौ गाँवों से भिन्न-भिन्न लोगों का साक्षात्कार लिया। समिति ने पाया कि कहीं किसी ने ईसा की निंदा नहीं की, सभी जगह केवल अवैध तरीकों से धर्मांतरण कराने पर आपत्ति थी। यह आपत्तियाँ सुदूर क्षेत्रों में, जहाँ यातायात न होने के कारण शासन या प्रेस का ध्यान नहीं, वहाँ गरीब लोगों को नकद धन देने; स्कूल-अस्पताल की बेहतर सुविधाएं देने के लोभ; नौकरी देने; पैसे उधार देकर दबाव डालने; नवजात शिशुओं को आशीर्वाद देने के बहाने जबरन बप्तिस्मा करने; आपसी झगड़ों में किसी को मदद कर के बाद में दबाव डालने; छोटे बच्चों और स्त्रियों का अपहरण करने; तथा विदेशों से आने वाले धन के सहारे इन्हीं तरीकों से किसी क्षेत्र में पर्याप्त धर्मांतरण करा कर पाकिस्तान जैसा स्वतंत्र ईसाई राज्य बना लेने के प्रयासों, आदि संबंधी थीं।

समिति ने पाया कि लूथरन और कैथोलिक मिशनों द्वारा नीतिगत रूप से धर्मांतरित ईसाइयों में अलगाववादी भाव भरे जाते हैं। उन्हें सिखाया जाता है कि धर्म बदल लेने के बाद उनकी राष्ट्रीयता भी वही नहीं रहती जो पहले थी। अतः अब उन्हें स्वतंत्र ईसाई राज्य का प्रयास करना चाहिए। मिशनरी दस्तावेजों, पुस्तकों, कार्यक्रमों आदि का अध्ययन कर समिति ने पाया कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत के प्रति मिशनरी नीतियाँ हैं – (1) राष्ट्रीय एकता का प्रतिरोध करना, (2) भारत और अमेरिका के बीच सहअस्तित्व के सिद्धांत से मतभेद, (3) भारतीय संविधान द्वारा दी गई धार्मिक स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए मुस्लिम लीग जैसी ईसाई राजनीतिक पार्टी बनाकर अंततः एक स्वतंत्र राज्य बनाना अथवा कम से कम एक जुझारू अल्पसंख्यक समुदाय बनाना। भारतीय संविधान की उदारता देखकर यूरोप और अमेरिका में मिशनरी सूत्रधारों ने अपना ध्यान भारत पर केंद्रित किया, समिति ने इसके भी प्रमाण पाए।
किंतु समिति की रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण अंश मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की स्थिति पर था। उस ने पाया कि जिन क्षेत्र में स्वतंत्रता से पहले स्वायत्त रजवाड़ो का शासन था और मिशनरियों पर अंकुश था, अब वहाँ उनकी गतिविधियाँ तीव्र हो गई हैं। इन नए खुले क्षेत्रों में पिछड़े आदिवासियों को धर्मांतरित कराने के लिए विदेशी धन उदारता से आ रहा है। ‘आज्ञाकारिता में भागीदारी’ नामक सिद्धांत के अंतर्गत चर्च को बताया जाता है कि वे जमीन से जुड़े रहें, किंतु अपनी निष्ठा और आज्ञाकारिता को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखें। समिति ने ईसाई स्त्रोतों से ही पाया कि वे मानते हैं कि उन के कार्य में सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति केवल धन है, हर जगह, हर समय, हर चीज धन पर ही निर्भर है। यहाँ तक कि जो भी व्यक्ति मिशनरियों से मिलने आता है केवल धन के लिए। भारतीय ईसाई विदेशी मिशनरियों का स्वागत भी केवल पैस के लिए करते हैं। कहीं किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक चर्चा या प्रेरणा का नामो-निशान नहीं था।

यह तथ्य एक लाक्षणिक उदाहरण भर था कि ‘नेशनल क्रिश्चियन काऊंसिल ऑफ इंडिया’ के खर्च का मात्र बीसवाँ अंश ही भारतीय स्त्रोतों से आता है, शेष बाहर से। कमो-बेश आज भी स्थिति वही है। यह कितनी विचित्र बात है कि जब जोर-जबर्दस्ती, छल-प्रपंच आदि द्वारा ईसाइयत विस्तार कार्यक्रमों पर चिंता होती है, तो ईसाइयत को भारत में दो हजार वर्ष पुराना, इसलिए, ‘भारतीय’ धर्म बताया जाता है। किंतु जब उसे राष्ट्रीय और आत्मनिर्भर होने के लिए कहा जाता है, तो उसे निर्बल होने के कारण विदेशी सहायता की आवश्यकता का तर्क दिया जाता है! जो भी हो, नियोगी समिति ने विदेशी स्त्रोतों से मिशनरी कार्यों के लिए आने वाले धन का भी हिसाब किया था और पाया कि ‘शिक्षा और चिकित्सा’ के लिए आए धन का बड़ा हिस्सा धर्मांतरण कराने पर खर्च किया जाता है।

जिन तरीकों से यह कार्य होता है वह आज भी तनिक भी नहीं बदले हैं। नियोगी समिति ने ठोस उदाहरण नोट किए थे। हरिजनों, आदिवासी छात्रों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उन्हें दी जानी वाली अतिरिक्त सुविधाओं को ईसाई प्रार्थनाओं में शामिल होने की शर्त से जोड़ा जाता है। बाइबिल कक्षा में शामिल न होने को पूरे दिन की अनुपस्थिति के रूप में दंडित किया जाता है। स्कूल के उत्सवों का उपयोग ईसाई चिन्ह की अन्य धर्मों के चिन्हों पर विजय दिखाने के लिए किया जाता है। अस्पतालों में गरीब मरीजों को ईसाई बनने के लिए दबाव दिया जाता है। सबसे जोरदार फसल अनाथालयों में काटी जाती है जहाँ बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक विपदा में तबाह परिवारों के बच्चों को लाकर सबको ईसाई बना लिया जाता है। अधिकांश धर्मांतरण अनिच्छा से होते हैं, क्योंकि सबमें किसी न किसी लाभ-लोभ की प्रेरणा रहती है। समिति ने पाया कि किसी ने अपने नए धर्म का कोई अध्ययन या विचार जैसा कभी कुछ नहीं किया। धर्मांतरित लोग केवल साधारण आदिवासियों के झुंड थे जिनकी चुटिया कटवा कर बस उन्हें ईसाई के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है।

रोमन कैथोलिक मिशनरी जरूरतमंदों को उधार देकर बाद में उसे वापस न करने के बदले ईसाई बनाने की विधि में सिद्धहस्त हैं। अन्य ईसाई मिशनरियों ने ही नियोगी समिति को यह बात बतायी। यदि कोई वापस करना चाहे तो उसे कड़ा ब्याज देना पड़ता है। कर्ज पाने की शर्त में भी कर्ज माँगने वाले को अपने हिन्दू चिन्ह छोड़ने, जैसे सिर की चोटी कटाने को कहा जाता है। कई लेनदार किशोर उम्र के और मजदूर होते हैं। यदि कोई व्यक्ति कर्ज लेता है, तो मिशनरी रजिस्टर में उस के पूरे परिवार को संभावित धर्मांतरितों में नोट कर लिया जाता है। कर्ज लेते समय ही एक वर्ष का ब्याज उस में से काट लिया जाता है। समिति को अपने संपूर्ण आकलन, अन्वेषण के दौरान एक भी ऐसा धर्मांतरित ईसाई न मिला जिस ने धन के लोभ या दबाव के बिना ईसाई बनना स्वीकार किया हो!

कितने आश्चर्य है कि जो प्रगतिवादी लेखक संगठन और वामपंथी नाट्यकर्मी प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहूँ’ पर हजारों नाटक मंचित कर चुके हैं, वे मिशनरियों की इस स्थायी, अवैध और घृणित महाजनी पर कभी कोई नाटक क्यों नहीं करते! मगर इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि भारतीय वामपंथियों को वैसा हर साम्राज्यवाद प्रिय है जिसका निशाना हिन्दू समाज हो।

मिशनरी साहित्य में हिन्दू देवी-देवताओं की छवियों और उन की पूजा पर अत्यंत भद्दे आक्षेप रहते हैं। स्कूलों में मंचित नाटकों में उनकी हँसी उड़ाई जाती है। उनका मखौल बनाने वाले गाने लिखे, गाए जाते हैं। हिन्दू ग्रंथों को विकृत करके प्रस्तुत किया जाता है। संविधान बनने के बाद से सरगुजा जिले में बने ईसाइयों की एक सूची सरकार ने समिति को दी थी। नियोगी समिति ने पाया कि वहाँ दो वर्ष में चार हजार उराँव ईसाई बने। उन में एक वर्ष से साठ वर्ष के पुरुष, स्त्री शामिल थे। समिति ने पाया कि उन में अपने नए धर्म का कहीं, कोई भाव लेश मात्र न था। प्रायः लोगों को झुंड में थोक भाव में धर्मांतरित करा लिया जाता है। किंतु रोमन कैथोलिक मिशनों ने समिति को अपने द्वारा धर्मांतरित कराए लोगों का विवरण नहीं दिया। क्योंकि उस से यह सच्चाई सामने आ जाती कि वह स्वेच्छा से नहीं, बल्कि संगठित, प्रायोजित हुआ था।

नियोगी समिति का प्रमाणिक निष्कर्ष था कि धर्मांतरण लोगों को राष्ट्रीय भावनाओं से विलग करता है (यही अपने समय में गाँधीजी ने भी कहा था)। धर्मांतरित ईसाइयों को सचेत रूप से इस दिशा में धकेला जाता है। उन से ‘राम-राम!’ या ‘जय हिन्द’ जैसे अभिवादन छुड़वा कर ‘जय यीशू’ कहना सिखाया जाता है। मिशनरी स्कूलों के कार्यक्रमों में राष्ट्रीय ध्वज से ऊपर ईसाई झंडा लगाया जाता है। ईसाई अखबारों में गोवा पर पुर्तगाल की औपनिवेशिक सत्ता बने रहने के पक्ष में लेख रहते थे, और इस बात की आलोचना की जाती थी कि भारत उसे अपना अंग बनाना चाहता है (तब गोवा पुर्तगाल के अधिकार में था)।

मिशनरी गतिविधियों की एक तकनीक समिति ने नोट की कि वह स्थानीय शासन और सरकार पर नियमित आरोप और शिकायतें करके एक दबाव बनाए रखते हैं, ताकि कोई उन की अवैध कारगुजारियों पर ध्यान देने का विचार ही न करे। यह एक जबरदस्त तकनीक है जो आज भी बेहतरीन रूप से कारगर है। समिति ने पाया कि मध्य प्रदेश शासन मिशनरी सक्रियता के क्षेत्रों में पूरी तरह तटस्थ रहा है, उस ने कभी कोई हस्तक्षेप किया हो ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिला। किंतु मिशनरी संगठन सरकार पर प्रायः कोई न कोई भेद-भाव जैसी शिकायत करते रहने की आदत रखते हैं। समिति ने पाया था कि यह प्रशासनिक अधिकारियों को रक्षात्मक बनाए रखने की पुरानी मिशनरी तकनीक रही है। यही आज भी देखा जाता है, जब दिल्ली, गुजरात, झारखंड, उड़ीसा या मध्य-प्रदेश में मिशनरी संगठन अकारण या उलटी बयानबाजी करके सरकार को रक्षात्मक बने रहने के लिए विवश करते हैं। उलटा चोर कोतवाल को डाँटे जैसी सफल तकनीक।

नियोगी समिति ने अनेकानेक मिशनरी दस्तावेजों का अध्ययन करके पाया था कि भारत में मिशनरी धर्मांतरण गतिविधियाँ एक वैश्विक कार्यक्रम के अंग हैं जो पूरे विश्व पर पश्चिमी दबदबा पुनर्स्थापित करने की नीति से जुड़ी हुई हैं। उस में कोई आध्यात्मिकता का भाव नहीं, बल्कि गैर-ईसाई समाजों की एकता छिन्न-भिन्न करने की चाह है। जो भारत की सुरक्षा के लिए खतरनाक है। समिति की राय में ईसाई मिशन भारत के ईसाई समुदाय को अपने देश से विमुख करने का प्रयास कर रहे हैं। यानी, धर्मांतरण कार्यक्रम कोई धार्मिक दर्शन नहीं, बल्कि राजनीतिक उद्देश्य के अंग हैं। भारत के चर्च स्वतंत्र नहीं, बल्कि उन के प्रति उत्तरदायी हैं जो उनके रख-रखाव का खर्च वहन करते हैं। समिति के अनुसार धर्मांतरण दूसरे तरीके से राजनीति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

यह संयोग नहीं है कि नियोगी समिति ने अवैध, राष्ट्र-विरोधी, समाज-विरोधी मिशनरी गतिविधियों को रोकने के लिए जो अनुशंसाएं दी थीं, उन का आज भी उतना ही मूल्य है। वे अनुशंसाएं यह थीं – (1) जिन विदेशी मिशनों का प्राथमिक कार्य मात्र धर्मांतरण कराना है, उन्हें देश से चले जाने के लिए कह देना चाहिए, (2) चिकित्सा और अन्य सेवाओं के माध्यम से धर्मांतरण बंद करने के लिए कानून बनाए जाने चाहिए, (3) किसी की विवशता, बुद्धिहीनता, अक्षमता, असहायता आदि का लाभ उठाते हुए धोखे या दबाव से धर्मांतरण को पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिए, (4) विदेशियों द्वारा तथा छल-प्रपंच से धर्मांतरण रोकने के लिए संविधान में उपयुक्त संशोधन होना चाहिए, (5) अवैध तरीकों से धर्मांतरण बंद करने के लिए नए कानून बनने चाहिए, (6) अस्पतालों में नियुक्त डॉक्टरों, नर्सों और अन्य अधिकारियों के रजिस्ट्रेशन में ऐसे संशोधन करने चाहिए जिस से उनके द्वारा किसी मरीज के ईलाज और सेवा के कार्यों के दौरान उस का धर्मांतरण न होने की शर्त हो, (7) बिना राज्य सरकार की अनुमति के धार्मिक प्रचार वाले साहित्य के वितरण पर प्रतिबंध हो।

जब नियोगी समिति की यह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई तो मिशनरी संगठनों ने इसे तानाशाही की ओर बढ़ने का उपाय बताकर निंदा की। किंतु किसी ने इस रिपोर्ट के तथ्यों, आकलनों को मिथ्या कहने का साहस नहीं किया। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे नेताओं, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों ने समिति की किसी अनुशंसा को लागू करने का प्रयास नहीं किया। यही कारण है कि रोग, उस के फैलने के तरीके, उस से होने वाली हानि और देश की सुरक्षा और अखंडता को खतरा भी यथावत है। इस अर्थ में नियोगी समिति की ऐतिहासिक रिपोर्ट आज पचपन वर्ष बाद भी सामयिक और पठनीय है।

बाबा माधवदास संभवतः अब नहीं हैं, किंतु उनकी वेदना का कारण यथावत है। न रोग दूर हुआ, न उस के निदान की कोई चिंता है। कंधमाल (उड़ीसा) की घटनाएं इस का नवीनतम प्रमाण हैं। नियोगी समिति ने उस के सटीक उपचार के लिए जो सुचिंतित, विवेकपूर्ण अनुशंसाएं दी थीं। वह आज भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी तब थीं। परंतु उस के प्रति हिन्दू उच्च वर्ग की उदासीनता भी लगभग वैसी ही है। इन में वैसे हिन्दू भी हैं जो सभी बातें जानते हैं, किंतु अपने सुख-चैन में खलल डाल कोई कार्य नहीं करना चाहते। कोई दूसरा कर दे तो उन्हें अच्छा ही लगता है। पर उसके लिए एक शब्द कहने तक का कष्ट वह उठाना नहीं चाहते।

इस भीरू प्रवृत्ति को महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने ‘म्यूनिख भावना’ की संज्ञा दी थी। इस मुहावरे की उत्पत्ति 1938 में जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली के बीच हुए म्यूनिख समझौते के बाद हुई। उस समझौते में महत्वपूर्ण यूरोपीय देशों ने चेकोस्वोवाकिया को हिटलरी जर्मनी की दया पर छोड़ कर स्वयं को सुरक्षित समझ लिया था। अपने नोबेल पुरस्कार भाषण (1970) में सोल्झेनित्सिन ने कहा था, “The spirit of Munich is a sickness of the will of successful people, it is the daily condition of those who have given themselves up to the thirst after prosperity at any price, to material well-being as the chief goal of earthly existence. Such people – and there are many in today’s world – elect passivity and retreat, just so that their accustomed life might drag on a bit longer, just so as not to step over the threshold of hardship today – tomorrow, you’ll see, it will all be all right. (But it will never be alright! The price of cowardice will only be evil; we shall reap courage and victory only when we dare to make sacrifices.)” भारत के उच्च वर्गीय हिन्दुओं में यह भावना केवल ईसाई मिशनरियों के आध्यात्मिक आक्रमण के प्रति ही नहीं, बल्कि इस्लामी आतंकवाद, कश्मीरी मुस्लिम अलगाववाद और नक्सली विखंडनवाद जैसे उन सभी घातक परिघटनाओं के प्रति है जिनका निहितार्थ उन्हें मालूम है। किंतु इन से लड़ने के लिए वे कोई असुविधाजनक कदम उठाना तो दूर, दो सच्चे शब्द कहने से भी वे कतराते हैं।

साभार: शंकर शरण