9 Oct 2013

Raahi

राही मैं तो अकेला ही चला,
राह मे साथी बनाता चला,
कुछ साथी पूरे राह चले,
कुछ बीच राह छोड़ चले,
कौन देगा दगा पता न चला,
दगा देना मैंने नहीं था सीखा,
इसलिए दगा खाता चला,
कुछ थीं जरूर कमियाँ मुझमे,
गिरा कई बार पर संभल न सका,
दुश्मन को दोस्त और,
दोस्त को दुश्मन बनाता चला।
राही मैं फिर अकेला ही चला,
होके तेरे दर से निराश चला,
पतझड़ मे तलाशने उम्मीद चला,
रेगिस्तान मे समंदर की खोज पर चला,
इक आस की डोर बांध कर चला,
अर्थी अपनी सजा कर चला,
सारे गम अपने भुला कर चला,
बची खुशियाँ समेट कर चल,
इक उम्मीद की डोर ले कर चला,
मैं 'विनीत' खुद का वजूद ढूँढने चला.........