9 Oct 2013

Raahi

राही मैं तो अकेला ही चला,
राह मे साथी बनाता चला,
कुछ साथी पूरे राह चले,
कुछ बीच राह छोड़ चले,
कौन देगा दगा पता न चला,
दगा देना मैंने नहीं था सीखा,
इसलिए दगा खाता चला,
कुछ थीं जरूर कमियाँ मुझमे,
गिरा कई बार पर संभल न सका,
दुश्मन को दोस्त और,
दोस्त को दुश्मन बनाता चला।
राही मैं फिर अकेला ही चला,
होके तेरे दर से निराश चला,
पतझड़ मे तलाशने उम्मीद चला,
रेगिस्तान मे समंदर की खोज पर चला,
इक आस की डोर बांध कर चला,
अर्थी अपनी सजा कर चला,
सारे गम अपने भुला कर चला,
बची खुशियाँ समेट कर चल,
इक उम्मीद की डोर ले कर चला,
मैं 'विनीत' खुद का वजूद ढूँढने चला.........

3 comments:

  1. बहुत खूब.. खुद का वजूद मत खोने देना 'विनीत'....

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (10-10-2013) "दोस्ती" (चर्चा मंचःअंक-1394) में "मयंक का कोना" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. इस हौसला आफजाई एवं प्यार के लिए धन्यवाद "रूप सर"

      Delete