महिमा गंगा मईया की
आस्था ने मिटाई जातियों एवं समंदरों की दूरियाँ
14 जनवरी, 2013, पौष सूद 3, विक्रम संवत 2069, दिन सोमवार मकर संक्रांति के दिन इलाहाबाद स्थित संगम पर साधुओं के शाही स्नान के साथ सदी के महाकुंभ का शुभारम्भ।
आज मैं बहुत ही उत्सुक था सदी के महाकुंभ के दिन और शाही स्नान के समय मे ही संगम मे डुबकी लगाने को। लेकिन मन मे एक डर था की कहीं भीड़ के वजह से मैं संगम मे डुबकी ना लगा पाऊँ। कहीं ऐसा ना हो की जहां मैं डुबकी लगाऊँ वहाँ केवल पतित पावनी गंगा हों या फिर यमुना हों। मेरा मन था सिर्फ उस स्थान पर डुबकी लगाने को जहां माँ गंगा, यमुना और अदृश्य रूप मे सरस्वती मिल संगम बनाती हैं।
मैं एक उत्साह और मन मे संगम से दूर जाने के डर को लिए हुए घर से निकल गया संगम की ओर। जैसे-जैसे मैं नदी तट के समीप पहुँच रहा था वैसे-वैसे दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी। रास्ते मे बहुत से श्रद्धालु मिले जिनमे कोई बंगाली था तो कोई मराठी, कोई उड़ीसा से आया था तो कोई केरल से, किसी का घर कश्मीर मे था तो किसी का गुजरात मे, कोई आसाम का रहने वाला था तो कोई पंजाब का, यहाँ तक की मुसलमान भी पहुंचे थे इस सदी के महाकुंभ मे डुबकी लगाने। आश्चर्य हुआ मुझे देख कर की सात समंदर पार से आए विदेशी श्रद्धालुओं को देख कर जो भगवा भेष मे नंगे पाँव श्रद्धाभाव मे नदी के तरफ बढ़े चले जा रहे थे। ये विदेशी श्रद्धालु रास्ते मे जो भी मिल रहा था उससे हाथ जोड़ नमस्ते कर रहे थे। भगवा वस्त्र मे तन कर चले जा रहे थे। जिनके पास भगवा वस्त्र नहीं थे वो खरीददारी करते हुए दिखे भगवा वस्त्रों की।
सभी के अंदर एक ललक और एक उत्साह था नदी मे डुबकी लगाने का। सभी भाव-विह्वल थे। सभी निष्काम भाव से आगे बढ़े चले जा रहे थे और गंगा मईया की जय, जय श्री राम अथवा अपने इष्ट देव का आहवाहन करते हुए चले जा रहे थे। रास्ते मे कई लोग ऐसे मिले जो आने जाने वालों को चाय, नाश्ता या पानी वगैरह की सुविधा देने के लिए खड़े थे और सब मुफ्त था। मैं चूंकि अपने रिस्तेदार के यहाँ से ही निकला था तो मैंने उनके इस आग्रह को विनम्रता से मना कर दिया की मुझे जरूरत नहीं है आप मेरा हिस्सा किसी दूर से आए श्रद्धालु को दें मैं तो अभी घर से ही आ रहा हूँ।
मैं भी विभिन्नता मे एकता को प्रदर्शित करती श्रद्धालुओं की भीड़ के साथ उस जगह पहुंचा जहां से कुम्भ मेला आरंभ था। मैं जैसे वहाँ पहुंचा तो देखा की नदी के तरफ मुंह करके रेत मे लेट कर गंगा मईया को सस्टांग नमन करते भगवाधारी कई विदेशी श्रद्धालु जिनकी आँखें नम थी माँ गंगा के मुहाने पर आ कर ही एवं एक बच्चे के मानिंद खुश हो रहे थे वो विदेशी तथा भारत के भिन्न-भिन्न कोने से पहुंचे हुए भक्त गण। उनको देख मेरे अंदर भी माँ गंगा को वंदन करने की ईक्षा हुई और मैं भी लोट गया उस सफ़ेद बालू मे। सफ़ेद बालू की शीतलता ने ही मेरे अंदर के अभी तक के सारे थकान को जैसे एक क्षण मे हर लिया हो और एक नई स्फूर्ति मेरे नसों मे दौड़ गई हो।
वहाँ से उठ हम सभी बढ़ चले संगम तट की ओर एक नए उत्साह से ओत-प्रोत हो कर। रास्ते मे हमें और श्रद्धालु भी मिलते गए और कारवां बनता गया, जयकारा लगता गया गंगा मईया का। सभी श्रद्धालु एक दूसरे को साथ ले कर चल रहे थे। हर तरफ केवल श्रद्धालुओं की भीड़ थी। लड़के-लड़कियाँ, बड़े-बुड्ढे यहाँ तक की बच्चों मे भी एक उत्साह था, गंगा मे डुबकी लगाने का। जमीन तो कहीं दिख ही नहीं रही थी। केवल श्रद्धालुओं का शरीर और उनकी भक्ति-निष्ठा दिख रही थी। एक भाव-विह्वलता दिख रही थी। एक समर्पण दिख रहा था माँ गंगा के प्रति।
रास्ते के दोनों तरफ साधुओं के स्थल थे। उसके बीच से ही सारे श्रद्धालु बस संगम तट की तरफ बढ़े चले जा रहे थे। रास्ते मे पुलिस की बैरिकेटिंग थी भीड़ को दूसरे तरफ मोड़ने हेतु ताकि श्रद्धालुओं की भीड़ एक ही घाट पर ना पहुँचे। पर गंगा मईया की महिमा भी अपरंपार थी और मैं अपने साथियों समेत संगम के तरफ ही मुड़ गया। जैसे पता चला की मैं संगम के तरफ मुड़ा हूँ मेरा उत्साह और दुगुना हो गया साथ ही विदेशी और देश के विभिन्न प्रान्तों से आए श्रद्धालुओं का भी।
अब हम सूखी सफ़ेद रेत से निकल कर गीली रेत पर आ गए और गीली रेत के ठंढक कर अहसास तन के साथ-साथ मन को भी सुकून दे रहा था। अब हमारी निगाहों के सामने विशाल क्षेत्र मे फैला संगम था। संगम का दृश्य बहुत ही विहंगम था और सभी भावविह्वल थे वहाँ। कुछ की आंखे नम थीं वहाँ तो कुछ श्रद्धा भाव मे बस गंगा और संगम की अविरलता को निहारे जा रहे थे। क्यूँ झूठ बोलूँ मैं खुद भी उनही श्रद्धालुओं की भीड़ मे था जो अविरलता को निहार रहे थे।
मैंने कब कपड़े उतारे और कब मैं संगम की गोद मे समा और उस अविरलता को अपने तन और मन पर महसूस करने हेतु और भी गीले रेत मे कब उतर गया, मैं कब झुका माँ गंगा को श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु, इसका मुझे पता ही नहीं चला। मुझे तो तब पता चला जब गंगा मैं संगम के ठंडे पानी मे उतरा और ऐसा लगा की जैसे मेरे पैर ठंड से सुन्न हो गए। यकीन मानिए और जगह होती मैं निकल गया होता पानी से, इतनी ठंड मे कौन इस बर्फ वाले पानी मे नहाये। परंतु जाने वो कौन सी शक्ति थी जिसने मेरे अंदर इतनी गर्मी पैदा कर दी की जब मैं छाती के बराबर पानी मे पहुँचा और डुबकी लगाई तो ऐसा जान पड़ा की इससे बड़ी शांति नहीं मिल शक्ति और कौन कहता है की जनवरी मे उत्तरी भारत मे 0 के आस-पास तापमान पहुँच गया था। कौन कहता है की इस ठंडी मे नदी का पानी बर्फ के मानिंद ठंडा होगा। पहली डुबकी के बाद जरा भी ठंड नहीं थी।
तभी मेरी नजर नदी के दूसरे तट पर गई जहां साधू-सन्यासी शाही स्नान कर रहे थे और वो भी उसी प्रकार उछल-कूद मचा रहे थे माँ गंगा और संगम मे जैसे की वो किसी माँ के गोद मे किलकारी मार हाथ-पैर चला रहे हों।
एक वाक्य मे कहें तो "क्या साधू क्या सन्यासी या फिर था वो कोई श्रद्धालु, सब थे मगन ध्यान मे लिन, गंगा की गोद मे समा जाने को तैयार।"
फिर मैंने अपने सभी परिजनों, स्वजनों और मित्रों के नाम की डुबकी लगाई जिनके नाम मुझे याद आते गए उस भावविह्वलता मे। फिर अपनी डुबकियाँ लगाईं मैंने। फिर जैसा माना जाता है की संगम मे स्नान के बाद वहीं नदी मे खड़े-खड़े सूर्य भगवान को अर्घ दिया जिसमे मैंने अपने सभी स्वजनों के लिए प्रार्थना और देश का भविष्य बदले ऐसी कामना की। (अब प्रार्थना क्या की ऐसा मानना है की बताया नहीं जाता है तो आपको मेरे कहे पर विश्वास करना पड़ेगा की मैंने प्रार्थना की)।
संगम मे अच्छा समय बिताने के बाद मैं बाकी के श्रद्धालुओं के साथ ही बाहर निकला। अपने कपड़े पहने। तब मैंने देखा की वहाँ तो लड़कियाँ भी नहा रही हैं, माताएँ भी नहा रही हैं, सात समंदर पार से लड़कियाँ भी नहा रही हैं और बाहर निकल कर कपड़ों के ओट मे वो अपने कपड़े बदल रही हैं परंतु लाखों की भीड़ के बाद भी किसी भी माता-बहन के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं कर रहा है। सभी अपने मे मस्त हैं। शारीरिक सौंदर्य की उपेक्षा कर केवल और केवल संगम के सौंदर्य को देखने मे व्यस्त हैं।
अब कपड़े पहन लेने के बाद मैंने सोचा की घूमते हैं कुम्भ लेकिन तभी घाट पर ही मैंने देखा की कुछ परिवार जिनमे औरतें ज्यादा थीं वो स्नान करने के बाद वहाँ पुजा वगैरह कर लेने के बाद प्लास्टिक की थैलियाँ वहीं छोड़े जा रही थी। मैंने उन्हे रोका और कहा की आप कृपया अपने फैलाये हुए कूड़े को समेट लें और इन्हे बाहर फेंके। इतने पर औरतें मेरे ऊपर चढ़ बैठीं। मैं कौन होता हूँ उन्हे मार्गदर्शन देने वाला या उनके काम मे टांग अड़ाने वाला या मुझे अपने काम से मतलब रखना चाहिए।
तब मैंने शांत मन से उन सभी परिवारों को समझाया की हम यहाँ अपने अगर कोई मैल है तो इस पावन घाट पर उस मैल को धोने आते हैं, हम यहाँ एक श्रद्धा भाव से आते हैं, हम यहाँ माँ गंगा के दर्शन और उनकी शीतलता और अविरलता को अपने अंदर आत्मसात करने आते हैं ना की हम यहाँ अपनी गंदगी को माँ गंगा को दान करने आते हैं, हम यहाँ आपने कूड़े को माँ गंगा मे प्रवाहित करने नहीं आते हैं, हमारे इस कूड़े से माँ गंगा कितनी दूषित होंगी और माँ गंगा को क्या कष्ट होगा हमारे इस कूड़े के प्रवाह से आप इतना तो समझ ही रहे होगे।
मेरे इतना समझने पर वो परिवार तुरंत समझ गया और उस परिवार ने ना केवल अपना ही कूड़ा बल्कि बाकी और भी जो कूड़े वहाँ थे सभी कूड़े को उठा एक झोले मे भर लिया और यही कार्य वहाँ उपस्थित बाकी लोगों ने भी किया और तुरंत ही घाट पूरी तरह से कूड़ा विहीन हो गया।
इन सारी गतिविधियों लोगों के बीच के बिना भेद-भाव के आत्मीयता को देख कर यही लगा की सच मे माँ गंगा और संगम साथ ही इस महाकुम्भ मे कुछ तो शक्ति है जो सभी को एक सूत्र मे बांध देती है।
हर हर गंगे
जय निर्मल पतित पावनी गंगा