ऐ हवा कभी तो तू मेरी दहलीज से गुजर ,
बना कभी तो मुझको तू अपना रहगुज़र ,
लौटा दे मेरे वो महकते पल चुराये जो तूने ,
कुछ महक मैं भी तो सँजो लूँ अपनी ॥
ऐ बहार कभी मेरे घर का तू रुख तो कर ,
क्यूँ छोड़ दिया तूने मुझको यूं मुरझाने को ,
जर्रा-जर्रा हो जाने को, तड़प जाने को ,
टूट के यूं हरदम बिखर जाने को ॥
ऐ चाँद थोड़ी तो चाँदनी उधार दे मुझे ,
शायद तेरी चाँदनी ही सुधार दे मुझे ,
लोग कहते हैं बिगड़ा हूँ मैं बहुत ,
बेदर्द इस जमाने से झगड़ा हूँ बहुत ॥
ऐ चिराग थोड़ी तो रोशनी कर ,
अँधियारे मेरे इस टूटे घरौंदे मे ,
कई बार मैंने खुद को जलाया है ,
थोड़े से उजाले की तलाश मे ॥
ऐ शाम तू तो ठहर जा और थोड़ी देर ,
आ बैठ, मुझसे थोड़ी बात तो तू कर ,
देखती है तू रोज यूं अकेला मुझे ,
बस तू ही तो है, मेरी दोस्त कहलाने को ॥
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