मैं दरख्त से टूटा एक सूखा पत्ता हूँ ना जिंदा हूँ ना मरता हूँ आग से मैं दोस्ती करता हूँ तिनके सा जल उठता हूँ राख़ बन उड़ जाता हूँ मैं एक तिरस्कृत झंझावात हूँ सहता हरदम कुठारघाट हूँ दुनिया को करता मदमस्त हूँ मैं तो मैली चादर मे पैबस्त हूँ अपनी ही हालत मे पस्त हूँ मैं समंदर मे फेंका एक तिनका हूँ लहरों पे डूबता उतराता हूँ किनारे आने को जूझता हूँ किनारे आ कर भी किनारे से दूर हूँ समंदर की लहरों के आगे मजबूर हूँ मैं अपने दुखों मे खुद पिसता हूँ ढूँढता अंजान रिश्ता हूँ दुनिया के आगे झूठ सही जीता हूँ अपने गमों को खुद ही पीता हूँ अंजान से राहों पर चलता हूँ मैं तो बस एक नादान परिंदा हूँ चुनता खुद का फंदा हूँ आँखों से आधा अंधा हूँ दिमाग से मैं गंजा हूँ मैं तो बस मनहूस एक बंदा हूँ
वो मांगती है मुझसे खुशियाँ ज्यादा , उसको क्या पता मैं तो , तन्हाइयों का इकलौता वारिश हूँ , गमों की चोट मैं खाता हूँ , पतझड़ को खुद मे संभाले बैठा हूँ , आंसुओं के समंदर मे गोते लगता हूँ , हिचकियों मे सारी रात बिताता हूँ , मुरझाये फूलों का गुलदस्ता हूँ , मिट्टी का बेजान पुतला हूँ , रेत सा खुद से फिसल जाता हूँ , संभलता कम गिरता ज्यादा हूँ , आकांक्षाओं के बोझ तले दबा जाता हूँ , बेवफाई के धागे मे लिपटा हूँ , बिना मंजिल का बेजान मुसाफिर हूँ , दोस्तों के लिए हमेसा हाजिर हूँ , फिर भी उनके बीच बस एक मुहाजिर हूँ , अपनों के बीच भी अकेला पाया जाता हूँ , हर दर्द को सिने मे दबाये जीता हूँ , बस दिल ही दिल मे हरपल रोता हूँ ॥
ऐ हवा कभी तो तू मेरी दहलीज से गुजर , बना कभी तो मुझको तू अपना रहगुज़र , लौटा दे मेरे वो महकते पल चुराये जो तूने , कुछ महक मैं भी तो सँजो लूँ अपनी ॥ ऐ बहार कभी मेरे घर का तू रुख तो कर , क्यूँ छोड़ दिया तूने मुझको यूं मुरझाने को , जर्रा-जर्रा हो जाने को, तड़प जाने को , टूट के यूं हरदम बिखर जाने को ॥ ऐ चाँद थोड़ी तो चाँदनी उधार दे मुझे , शायद तेरी चाँदनी ही सुधार दे मुझे , लोग कहते हैं बिगड़ा हूँ मैं बहुत , बेदर्द इस जमाने से झगड़ा हूँ बहुत ॥ ऐ चिराग थोड़ी तो रोशनी कर , अँधियारे मेरे इस टूटे घरौंदे मे , कई बार मैंने खुद को जलाया है , थोड़े से उजाले की तलाश मे ॥ ऐ शाम तू तो ठहर जा और थोड़ी देर , आ बैठ, मुझसे थोड़ी बात तो तू कर , देखती है तू रोज यूं अकेला मुझे , बस तू ही तो है, मेरी दोस्त कहलाने को ॥