"पहले जम्मू कश्मीर की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपो, स्वयं जम्मू कश्मीर छोड़ कर बाहर चले जाओ तभी विलय स्वीकार होगा और तभी भारतीय फौज श्रीनगर पहुंचेगी।"
नेहरू ने अपनी इस हठधर्मिता एवं अदूरदर्शिता के आगे एवं शेख अब्दुल्ला के प्रेम मे पागल हो कर सरदार पटेल, गोपालस्वमी आयंगर, आचार्य कृपलानी एवं महात्मा गांधी तक की नेक सलाहों को ताक पर रख दिया। अपने हाथ एवं अदूरदर्शिता के मद मे चूर नेहरू इतना भी नहीं भाँप रहे थे की अगर जम्मू-कश्मीर हाथ से चला गया तब क्या होगा?
इसी दौरान पाकिस्तानी सेना श्रीनगर तक पहुँच गई थी एवं चुन-चुन कर हिन्दू मंदिरों तथा हिन्दू घरों को आग के हवाले एवं हिन्दू औरतों का बलात्कार कर रही थी। ऐसे समय मे देशहित मे एवं अपने प्रजा को बचाने हेतु महाराजा हरी सिंह ने नेहरू की इन अनुचित शर्तों को मान लिया। तब जाकर भारतीय सेना 27 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर की धरती पर उतरी।
वैसे कबीले गौर ये भी था की जहां जम्मू कश्मीर पर ये हमला शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान एवं जिन्ना के साथ मिल कर कराया था वही शेख अब्दुल्ला हमले के दौरान अपने पूरे परिवार संग अपने साले के यहाँ इंदौर भाग गया था। एवं लड़ाई समाप्त होने पर नेहरू उसे भारतीय सेना की सुरक्षा मे इंडियन एयरफोर्स के विमान से दूल्हे की तरह श्रीनगर पहुंचा। एवं पूरे संघर्ष एवं लड़ाई के दौरान दृढ़ता से टीके रहने वाले महाराजा हरी सिंह अपना सर्वस्य लूटा कर श्रीनगर छोड़ जम्मू आ गए।
देश का प्रधानमंत्री होने के बाद भी नेहरू को जब देश की सामरिक नफा-नुकसान तक पता न था एवं एक देशद्रोही का साथ दिया ऐसे मे मैं नेहरू को क्यूँ ना देशद्रोही कहूँ ?
kitna kuch sach padne ko mil raha hai inn congressiyo k khilaaf
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