तरकश में हैं तीर बहुत
पर वो गाँडीव नहीं...
गर गाँडीव कहीं है
तो वो अंगूठा नहीं...
गर अंगूठा कहीं है
तो एकलव्य वो नहीं...
गर एकलव्य भी हैं
तो समर्पण वो नहीं...
श्रद्धा-भाव तो दूर-बहुत-दूर है
चहुओर व्याप्त आज कुटिलता है...
दिखावा आज ये लोग कर रहे हैं
दिखावे मे जी रहे हैं मर रहे हैं...
दिखावे की है फटी चादर इनकी
हरदम पैबंद लगाने की है सोच इनकी...
अब तो शर्म भी ना आती इनको
मैली इनकी चादर पर पॉलिश भी है नकली...
कभी ना ये सकुचाते हैं न कभी अकुलाते हैं
हमेसा गीदड़-भभकी पर ही ये आ जाते हैं...
जाने कौन आज भी इनसे डरता है
छल, कपट, लालच-लोभ भरा इनमे है...
काश थोड़ी गैरत होती इनमे आज तो
देश की नियति यूं ना आज होती...
कल के ही जागे युवा आज यूं ना सोये होते
तिरंगा होतीं ये सड़कें भी आज...
गूँजता चहुं दिशा मे वन्देमातरम का राग
हर गली-मोहल्ले-नुक्कड़ से उठती एक ही आवाज...
इंकलाब-जिंदाबाद...इंकलाब-जिंदाबाद
विनीत भाई बहुत सुंदर रचना....... आपका प्रयास सार्थक हो॥
ReplyDeleteSuper post! Just like your blog professionalism! Keep up the good work.
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