जिंदगी बस यूँ ही बीत रही,
ग़मों की महफ़िल सींच रही,
क्या बताऊँ कब कैसे कहाँ,
उल्टी धारा में बहता "विनीत" जहां।
सोचा नहीं था कभी आएगा ऐसा,
तिरछा मोड़ मुक्कदर का,
हर जंजाल बनता पीर यहां,
दर्द की दवा मिले तो मिले कहाँ।
रिश्तों में फरेब की आंधी यहां,
कहाँ तक सँभाले "विनीत",
मिलते न सच्चे मीत जहां,
लगाएं किससे प्रीत यहां।
जिंदगी के झंझावात में अकेला,
समेट रहा दुःखों का मेला,
चाहता हूँ हो जाऊं मैं भी औरों सरीखा,
बस सीखा नहीं "विनीत" ने धोखाधड़ी।